अंग्रेज़ी माध्यम की अंधी दौड़ और मासूम बचपन का संघर्ष
(सत्य घटनाओं के आँकलन पर आधारित)
लेखक – विनय हटवाल धीमान, एडवोकेट, मेरठ
भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा हमेशा से संस्कृति, शिक्षा और पहचान का आधार रही है। लेकिन बीते कुछ दशकों में अंग्रेज़ी भाषा को प्रतिष्ठा और सफलता का पर्याय मान लिया गया है। नतीजा यह हुआ है कि आज माता–पिता बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों में भेजने की होड़ में लगे हुए हैं। यह प्रवृत्ति केवल शिक्षा का सवाल नहीं रह गई है, बल्कि “समाज में अपनी स्थिति दिखाने” का एक साधन बन चुकी है। दूसरी ओर अंग्रेजी माध्यम स्कूल भी अपने को ज्यादा से ज्यादा कॉर्से को अंग्रेजी मे करके अपने को ओर प्रतिष्ठित और आधुनिक दिखाना चाहते हैं, अभी के परिवेश मे ऐसा करना स्कूल्स के लिए भी आवश्यक हो गया है ।
दिखावे की मानसिकता
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कई माता–पिता यह सोचकर अपने बच्चे का दाख़िला अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में करवाते हैं कि—
• “लोग क्या कहेंगे अगर हमारा बच्चा हिंदी मीडियम में पढ़ेगा?”
• “अंग्रेज़ी आएगी तो ही नौकरी मिलेगी।”
• “अंग्रेज़ी बोलने वाला बच्चा स्मार्ट दिखता है।”
• “पड़ोसी की पिंकी भी अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल मे जाती है, हमारा बच्चा भी वहीं जाना चाहिए।”
परिणामस्वरूप बच्चे पर एक ऐसा बोझ डाल दिया जाता है जिसे वह उठाने के लिए तैयार ही नहीं होता। बल्कि उसको तो पता ही नहीं होता है की उस पर ये कैसे बोझ डाल दिया गया है । घर मे तो उसने सेब, केला, अनार, छाता, रोटी, बंदर, कुत्ता ये सब पढ़ा है स्कूल मे आकर तो उसकी दुनिया ही बदल जाती है। आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है, दिमाग ब्लॉक हो जाता है की ये आखिर क्या हो गया। बच्चे के अभिभावक झूठे दिखावे मे यही सोचते हैं की उन्होंने बच्चे का एडमिशन एक अंग्रेजी माध्यम के बड़े स्कूल मे करवाया है (इस बात से एकदम अनजान कि बच्चा एक अलग ही जंग लड़ रहा होता है, स्कूल से, टीचर से यहाँ तक की अपने स्वयं के माता पिता से, और तो और खुद से भी)।
मासूमियत और बोझ के बीच का संघर्ष
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भारत में बच्चे की मातृभाषा हिंदी, गुजराती, मराठी, तमिल, बांग्ला या कोई अन्य भारतीय भाषा होती है। बच्चा सोचता, समझता और अपनी भावनाएँ इन्हीं भाषाओं में व्यक्त करता है। लेकिन जब उससे कहा जाता है कि “गणित, विज्ञान, इतिहास सब अंग्रेज़ी में समझो,” तो उसकी समझने की क्षमता पर एक भारी बोझ डाल दिया जाता है।
घर का दृश्य
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पिता (कड़क आवाज़ में): “इतनी बार पढ़ाया, फिर भी समझ नहीं आता? तुम्हें ठीक से पढ़ाई में ध्यान ही नहीं है।”
माँ (थकी हुई): “देखो पड़ोस की रीमा को, वो तो इंग्लिश में टीचर से बातें करती है। और तुम…”
बच्चा (धीरे से, आँखे झुकाकर): “मम्मी, मुझे समझ में नहीं आता.. सबकुछ नया लगता है।” (या फिर बच्चा, माता पिता की डांट सुनकर चुप रह जाता है या फिर 2, 4 थप्पड़ भी खा लेता है उनके गुस्से की वजह से)
यह दृश्य केवल एक घर का नहीं, बल्कि लाखों भारतीय घरों का है।
स्कूल में अपमान
बच्चा घर में डांट खाता है पर यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता वह मासूम स्कूल में भी अपमानित होता है।
टीचर (क्लास में): “इतनी आसान बात भी समझ नहीं आती तुम्हें? तुम्हारे पेरेंट्स ने तुम्हें कुछ सिखाया ही नहीं होगा। कितने गंवार और नालायक पेरेंट्स हैं तुम्हारे। इस बार जितने नालायक पेरेंट्स अभी तक नहीं देखे हैं मैंने।”
जब बच्चा अपने टीचर की जुबान से अपने माता–पिता का अपमान सुनता है, तो उसके मन में गहरी चोट लगती है। वह न केवल पढ़ाई से डरने लगता है, बल्कि अपने माता–पिता के लिए भी अपराधबोध महसूस करने लगता है। पता टीचर को भी होता है की जो बच्चे ऐसे स्कूल मे पढ़ रहे हैं उनके माता कोई मजदूर नहीं होंगे बल्कि डॉक्टर, इंजीनियर, एडीवोकेट, बिजनेसमैन, गवर्नमेंट अधिकारी और भी बहुत पढे लिखे लोग होंगे। पर टीचर बच्चे पर अपनी कुंठा निकालने और अपने गुस्से के चलते सभी अत्यधिक पढे लिखे माता पिता के बारे मे उनके बच्चे के सामने ही अपशब्द बोल देती है।
समाज का भ्रम और हीनभावना
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आज भारत में अंग्रेज़ी बोलने वाले को आधुनिक और सफल माना जाता है, जबकि मातृभाषा में पढ़े व्यक्ति को “गाँव वाला” या “पिछड़ा” कह दिया जाता है। यही कारण है कि माता–पिता खुद भी हिंदी बोलने में झिझकने लगते हैं और बच्चों को जबरन अंग्रेज़ी के पीछे धकेलते हैं।
मनोवैज्ञानिक असर
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1. आत्मविश्वास पर चोट – बच्चा खुद को दूसरों से कम समझने लगता है।
2. पढ़ाई से नफ़रत – जब समझ ही न आए तो पढ़ाई बोझ लगती है।
3. तनाव और अवसाद – लगातार डांट और अपमान से बच्चा भीतर ही भीतर टूटने लगता है।
4. रिश्तों में दरार – माता–पिता और बच्चे के बीच का रिश्ता दूरी और डर से भर जाता है।
शिक्षा विशेषज्ञों की राय
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UNESCO और कई शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट कहा है कि प्रारंभिक शिक्षा हमेशा मातृभाषा में दी जानी चाहिए।
क्योंकि मातृभाषा में बच्चा न केवल जल्दी सीखता है बल्कि उसका क्रिटिकल थिंकिंग (आलोचनात्मक सोच) और रचनात्मकता (Creativity) भी अधिक विकसित होती है।
महात्मा गांधी ने भी कहा था—
“अगर हम बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देंगे तो वे ज्यादा सहजता और गहराई से सीखेंगे।”
वास्तविक उदाहरण
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• जापान, कोरिया, रूस, जर्मनी और चीन जैसे देशों में शिक्षा मुख्य रूप से मातृभाषा में दी जाती है। इन देशों ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में जो तरक्की की है, वह इस बात का प्रमाण है कि मातृभाषा किसी भी प्रकार की प्रगति में बाधा नहीं है।
• भारत में भी कई महान वैज्ञानिक, साहित्यकार और नेता मातृभाषा में शिक्षित होकर ही आगे बढ़े। कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं जिन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपनी मातृभाषा मे की।
महात्मा गांधी, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, मुंशी प्रेमचंद, भीमराव आंबेडकर, सी.वी. रमन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, जगदीश चन्द्र बोस, श्रीनिवास रामानुजन, विनोबा भावे, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभभाई पटेल, जयप्रकाश नारायण, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, शिवाजी महाराज, तानसेन, कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई। एक नाम ओर है पर रहने देते हैं क्योंकि वो इतना महान नहीं है पर जिस जगह वो आज है वहाँ होना भी कई लोगों का सपना होता है।
समाधान का रास्ता
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1. प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में– बच्चे को उसकी अपनी भाषा में पढ़ाएँ। इससे नींव मजबूत होगी।
2. अंग्रेज़ी को साधन बनाइए, लक्ष्य नहीं– अंग्रेज़ी ज़रूरी है, लेकिन इसे धीरे-धीरे दूसरी भाषा के रूप में सिखाया जाए, न कि शिक्षा का एकमात्र आधार बनाया जाए।
3. माता–पिता की जिम्मेदारी– बच्चों की तुलना दूसरों से न करें। उन्हें प्रोत्साहन दें। धैर्य रखें।
4. शिक्षकों की संवेदनशीलता– बच्चों और उनके सामने उनके माता–पिता का अपमान करने के बजाय उनके आत्मविश्वास को बढ़ाएँ।
5. समाज की सोच बदलनी होगी– हमें यह स्वीकार करना होगा कि ज्ञान और समझ भाषा पर निर्भर नहीं, बल्कि जिज्ञासा और मेहनत पर निर्भर करती है।
निष्कर्ष
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बचपन मासूमियत का समय है, बोझ का नहीं। अगर हम बच्चों पर अंग्रेज़ी थोपते रहेंगे तो उनका बचपन दबकर रह जाएगा। हमें बच्चों को उनकी मातृभाषा में मज़बूत नींव देनी होगी और अंग्रेज़ी को एक सहायक भाषा की तरह अपनाना होगा। शिक्षा का असली उद्देश्य बच्चों को आत्मविश्वासी, विचारशील और संवेदनशील इंसान बनाना है—ना कि उन्हें केवल “अंग्रेज़ी बोलने वाली मशीन” बना देना। शुरुआत घर से ही करनी पड़ेगी । स्कूल तो बिजनस मोडेल पर चल रहे हैं आजकल। “अगर हम समय रहते अपनी सोच नहीं बदलते, तो अगली पीढ़ी सिर्फ भाषा के बोझ तले दबेगी और अपनी जड़ों से कट जाएगी। बच्चों का बचपन बचाने का सबसे सरल रास्ता यही है कि हम उन्हें उनकी अपनी भाषा में सपने देखने दें।”
लेखक
विनय हटवाल धीमान
एडवोकेट/ सॉफ्टवेयर सोल्यूशंस आर्किटेक्ट
मेरठ, उत्तर प्रदेश
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